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मेहरबाँ फ़र्श पर | शाही शायरी
mehrban farsh par

नज़्म

मेहरबाँ फ़र्श पर

रफ़ीक़ संदेलवी

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इक मुअल्लक़ ख़ला में कहीं ना-गहाँ
मेहरबाँ फ़र्श पर पाँव मेरा पड़ा

मैं ने देखा खुला है मिरे सामने
ज़र-निगार ओ मुनक़्क़श बहुत ही बड़ा

एक दर ख़्वाब का
मेहरबाँ फ़र्श के

मरमरीं पत्थरों से हुवैदा हुआ
अक्स महताब का

मैं ने हाथ अपने आगे बढ़ाए
और उस को छुआ

घंटियाँ मेरे कानों में बजने लगीं
जावेदाँ और ग़िनाई रिफ़ाक़त के माबैन था

मेरा सहरा-ए-जाँ
इक मुअल्लक़ ख़ला में कहीं ना-गहाँ

मैं ने देखा
मिरे शब-नुमा जिस्म पर

इक सितारा सी बारिश ने लब रख दिया
नर्म बुर्राक़ तर्शे हुए ताक़ पर

जितना ज़ाद-ए-सफ़र मेरे हम-राह था
मैं ने सब रख दिया

अब मैं आज़ाद था
और तिलिस्मीं पड़ाव का हर इस्म भी याद था

मैं ने देखा
मिरे चार जानिब झुका था

पियाला-नुमा आसमाँ
मेरा महरम मिरी साँस का राज़-दाँ

इक मुअल्लक़ ख़ला में कहीं ना-गहाँ
मेहरबाँ फ़र्श पर पाँव मेरा पड़ा

मैं ने देखा खुला है मिरे सामने
ज़र-निगार ओ मुनक़्क़श बहुत ही बड़ा

एक दर ख़्वाब का