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मेआ'र | शाही शायरी
mear

नज़्म

मेआ'र

अहमद नदीम क़ासमी

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शाइ'र अब तक तो ये कहता था कि मेरा महबूब
कुछ इस अंदाज़ से चुप-चाप मिरे पास आया

जैसे फूलों पे उतरती है सुबुक-पा शबनम
लेकिन इस दौर को क्या जानिए क्या रोग लगा

अब तो महबूब की आमद भी नहीं हश्र से कम
एक इक साँस में हैं कितने छनाके बरपा

अब तो मस करती है जब ऐसे एज़ार-ए-गुल से
ऐसी आवाज़ से गूँज उठती है गुलशन की फ़ज़ा

जैसे जलते हुए जंगल पे बरस जाए घटा
फ़न के मेआ'र बदलते तो हैं लेकिन अब के

इस क़दर शोर है क्यूँ ऐ मिरे ख़ामोश ख़ुदा