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मवाख़िज़ा | शाही शायरी
mawaKHiza

नज़्म

मवाख़िज़ा

अज़ीज़ क़ैसी

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हमारे साथ जो कुछ राहज़न भी हैं माख़ूज़
वो अहल-ए-शहर के कहने से छूट जाएँगे

गवाह-ए-कुफ़्र हमीं में है कौन पहचाने
हमीं तो एक से लगते हैं आज सब चेहरे

हमारा जुर्म तो रू-पोश भी नहीं अब के
किसी गवाह की हाजत नहीं सज़ा के लिए

दयार-ए-ग़म की सदा-ए-नहुफ़्ता पहचानो
हवा-ए-जब्र चराग़-ए-नफ़स के दर पे है

ये और बात है ख़ुद को छुपा रहा है मगर
वली-ए-शहर सँभाले है ताज काँटों का

हुजूम बहर-तमाशा खड़ा है गलियों में
ये अस्र-ए-ख़ूँ की किफ़ालत का मुद्दई' है अभी

सलीब ढूँड रही है किसी मसीह को फिर
यही घड़ी है हर इल्ज़ाम अपने सर ले लो