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मौत मेरी सखी | शाही शायरी
maut meri sakhi

नज़्म

मौत मेरी सखी

शाइस्ता हबीब

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मौत मेरी सखी
मेरे ही संग आँगन में खेली बढ़ी

मेरी पोशाक मेरे दुपट्टे पे वो अपने ही प्यारे हाथों से
चाँद और तारे उगाती रही

ज़िंदगानी से मुझ को लड़ाती रही
मौत मेरी सखी

मेरे ही संग खाने के लुक़्मे भरे
मैं भरी चाँद रातों में मिट्टी की कोरी सुराही से

पानी पिलाती रही
सर्दियों की ठिठुरती सियाह रात में

और सफेदे से लबरेज़ कोहरे भरे
दिन को अपने खुले बाज़ुओं में बुलाती रही

मौत मेरी सखी
मेरी तन्हाइयों की कड़ी धूप में

छाँव बन कर मिरे साथ चलती रही
मौत मेरी सखी मेरी नब्ज़ों की वो राज़दाँ

मेरे आँसुओं की सब आहटें इस के हाथों से लिक्खी गईं
नफ़रतों और मोहब्बत की सब पर्चियाँ मेरे दामन में गिरती रहीं

मौत मेरी सखी उन को चुनती रही
आज मेरी सखी मौत मेरी सखी

मुझ से ही रूठ के मेरे घर से चली
मैं विदाई के सब गीत होंटों में भींचे

उसे देखती ही रही
मुझे छोड़ कर यूँ न जाओ

तुम्हारे बिना मेरे आँगन का तन्हा शजर
सूखते सूखते एक दिन इस ज़मीन पर बिखर जाएगा

और मासूम चिड़ियाँ बिना मौत मर जाएँगी
ज़िंदगी से जो नाता है कट जाएगा

मौत मेरी सखी
आओ फिर मुझ को ओढ़ो मुझे पहन लो

आओ फिर मुझ को अपने गले से लगा लो
मोहब्बत से फिर आसमाँ पर उठा लो

चली आओ मेरी सखी
मौत मेरी सखी