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मस्लहत | शाही शायरी
maslahat

नज़्म

मस्लहत

नरेश कुमार शाद

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चाँदनी रात के हँसते हुए ख़्वाबों की तरह
नुक़रई जिस्म का शादाब गुलिस्ताँ ले कर

शोख़ आँखों के छलकते हुए पैमानों में
मुझ तही-दस्त के आलाम का दरमाँ ले कर

आज तू जिन को बुझाने के लिए आई है
उन्हीं शो'लों से मिरे दिल ने जिला पाई है

उन्हीं शो'लों की तब-ओ-ताब है जिस ने अब तक
मेरे इदराक को बे-सोज़ नहीं रक्खा है

जब्र की छाँव में परवान चढ़ा हूँ फिर भी
मैं ने इंसान की अज़्मत पे यक़ीं रक्खा है

ऐसे शो'लों की तपिश तेरी पनाहों में कहाँ
और ये सोज़-ए-यक़ीं तेरी निगाहों में कहाँ

उन्हीं शो'लों की तमाज़त का सहारा ले कर
बरबरिय्यत के हर ऐवान से टकराया हूँ

हर कड़े वक़्त में संगीन चटानों की तरह
तुंद हालात के तूफ़ान से टकराया हूँ

तू कहाँ और मिरी जुरअत-ए-बे-बाक कहाँ
तुझ को इस काहिश-ए-जाँ-सोज़ का इदराक कहाँ

अब यही शो'ले मिरी फ़िक्र-ओ-नज़र में ढल कर
हुस्न-ए-एहसास का शहकार नज़र आते हैं

इस तमद्दुन की घनी रात के सन्नाटे में
सुब्ह की तरह ज़िया-बार नज़र आते हैं

और तू कहती है इस सुबह का सौदा कर लूँ
दिल में इन शो'लों के बदले तिरे जल्वे भर लूँ

जब भड़क उट्ठेंगे हर सर्द-ओ-सियह सीने में
यही शो'ले दिल-ए-आफ़ाक़ को लौ बख़्शेंगे

तीरा-ओ-तार दिमाग़ों को बुझे चेहरों को
अज़्म-ओ-उम्मीद की गाती हुई ज़ौ बख़्शेंगे

और ये ज़ौ ही बनेगी तिरे जल्वों का कफ़न
आग हो जाएगा इस से तिरा शादाब-ए-चमन

मेरे आलाम का दरमाँ तिरी आँखों में नहीं
अपने एहसास को सीने में तपाँ रक्खूँगा

आज तक मैं ने जिसे शोला-फ़िशाँ रक्खा है
अब भी वो आग यूँही शोला-फ़िशाँ रक्खूँगा

मुझ को एहसास है लेकिन तुझे एहसास नहीं
तेरे दामन की हवा मेरे लिए रास नहीं