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मक़ाम-ए-जाँ | शाही शायरी
maqam-e-jaan

नज़्म

मक़ाम-ए-जाँ

ख़ान मोहम्मद ख़लील

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नमक के सहरा में अपनी पलकों से
टुकड़े टुकड़े ये ख़्वाब चुन लूँ

तो तुझ को देखूँ
शिकस्ता-हाथों से हसरतों के अज़ाब चुन लूँ

तो तुझ को देखूँ
जो तुझ को देखूँ तो जान पाऊँ

कि इस सफ़-ए-दोस्ताँ में तेरा मक़ाम क्या है
नक़ीब-ए-जाँ तू कहाँ खड़ा है

वो सफ़ कि जिस ने मोहब्बतों के गुलाब पहने
अज़ीम चाहत के सुर्ख़ लम्हों की हिद्दतों से बदन सजाए

फ़क़त तिरा जिस्म ही नहीं जल्वा-ज़न मिरी जाँ
बल्कि सारा जहाँ खड़ा है