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मकान | शाही शायरी
makan

नज़्म

मकान

गुलज़ार

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एक लुढ़की हुई वादी में
बहुत नीचे ख़लाओं से

जहाँ धुँदली फ़ज़ाओं का चलन है
ख़स्ता सा एक मकाँ मुझ को विरासत में मिला है

जिस तरह सूख के ज़ख़्मों से गिरा करती है पपड़ी
उस की दीवारों से इस तरह से गिरता है प्लस्तर

एक पाँव पे खड़े सारे सुतूँ थक से गए हैं
ख़ुर्दा दाँतों की तरह हिलती हैं हर ताक़ में ईंटें

मोच खाई हुई कुछ खिड़कियाँ तिरछी सी खड़ी हैं
काँच धुँदलाए हुए चटख़े हुए

पहले बाहर की तरफ़ खुलती थीं अफ़्लाक की जानिब
अब ये अंदर भी नहीं खुलतीं अगर साँस घुटे

अब्र-आलूद हैं अब
और हवाओं में भी सूराख़ पड़े हैं

मेरा पैदाइशी घर है मुझे रहना है यहीं पर
एक मैला सा फ़लक है तो मिरे सर पे अभी तक

डरता हूँ गिर न पड़े सोते में एक रोज़ कहीं