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मैं वो पत्थर | शाही शायरी
main wo patthar

नज़्म

मैं वो पत्थर

खुर्शीद अकबर

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उस से रिश्ता रहा अजब मेरा
आ गया नाम बे-सबब मेरा

उस से आगे के मरहले पे मगर
ना-रसाई के सिलसिले पे मगर

मैं तो कुछ बोल भी नहीं सकता
राज़ ये खोल भी नहीं सकता

सिलसिला दूर तक उदासी का
एक मंज़र है ना-सिपासी का

झूट हो वक़्त हो कि इश्क़-ए-मुदाम
याद हो ख़्वाब हो कि हिज्र-ए-दवाम

उन के तो पाँव भी नहीं होते
और वो चल कर आए मेरे पास

बार-ए-एहसाँ भी मुझ पे डाल गए
ले उड़े छीन कर वो होश-ओ-हवास

जाने सब हो गए कहाँ रू-पोश
हाँ वही जान-ए-आसमाँ-बर-दोश

शोर है ख़ित्ता-ए-अदावत में
मैं हूँ फिर हुजरा-ए-नदामत में

खो गया शौक़-ए-इंतिज़ार मिरा
छिन गया मुझ से मेरा शहर-ए-नजात

किस बयाबाँ में उस ने डाल दिया
हो गई दूर शाहराह-ए-हयात

यूँ रुख़-ए-ए'तिबार भी टूटा
मज़हब-ए-इख़्तियार भी छूटा

इश्क़ जब इम्तिहान लेता है
शहर-ए-महबूब छूट जाता है

मैं वो पत्थर जो टूटता भी नहीं
सब्र-ए-अय्यूब टूट जाता है