किस क़दर रौशन हैं अब अर्ज़-ओ-समा
नूर ही नूर आसमाँ-ता-आसमाँ
मेरे अंदर डूबते चढ़ते हुए सूरज कई
जिस्म मेरा रौशनी ही रौशनी
पाँव मेरे नूर के पाताल में
हाथ मेरे जगमगाते आसमानों को सँभाले
सर मिरा काँधों पे इक सूरज
कि नादीदा ख़लाओं से परे उभरा हुआ
और ज़मीं के रोज़-ओ-शब से छूट कर
आगही की तेज़-रौ किरनों पे मैं उड़ता हुआ
चार जानिब इक सुहानी तीरगी की खोज में निकला हुआ
नज़्म
मैं
शहाब जाफ़री