मैं जब तख़्लीक़ का जुगनू पकड़ता हूँ
मैं जब अंदर अंधेरे में
गुँधी मिट्टी का पानी
रौशनी की बूँद की ख़्वाहिश जगाता है
कीमियाई ख़्वाब कितने एहतमाम-अँगेज़ होते हैं
भटकती ख़ुशबुओं को जमा करते हैं
पहाड़ों पर पड़ी बीनाओं की वुसअतों को
जोड़ कर तरतीब से रखते हैं
और आँखें बनाते हैं
फिर उन में आँसुओं की फ़स्ल उगाते हैं
मुझे बारिश बताती है
कि माथे से पसीना बह रहा है
थूक मुँह भर के निकलने से
अपाहिज हरकतों का ज़ंग उतरता है
अज़िय्यत सहने की लज़्ज़त मिरे अंदर उतरती है
मैं बिस्तर पर सिकुड़ता हूँ
नई इक नज़्म लिखता हूँ
नज़्म
मैं नज़्म लिखता हूँ!
क़ासिम याक़ूब