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मैं कि इक बनी-आदम | शाही शायरी
main ki ek bani-adam

नज़्म

मैं कि इक बनी-आदम

ख़ालिद मुबश्शिर

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मैं कि इक बनी-आदम
आलम-ए-अनासिर का

इक ख़मीर-ए-ताज़ा-दम
इक हयात मुझ में है

काएनात मुझ में है
मेरी सल्तनत है सब

मुझ से है जहाँ क़ाएम
मैं हूँ गर्दिश-ए-पैहम

रौ में है लहू हर दम
क्या ख़बर लहू क्या है

एक शोरिश-ए-हस्ती
एक दाख़ली तूफ़ाँ

एक महशर-ए-दौराँ
क्या ख़बर लहू क्या है

गर्दिशें सितारों की
गर्दिश आसमानों की

गर्दिशें ज़मीनों की
गर्दिशें ज़मानों की

क्या ख़बर लहू क्या है
ये निज़ाम-ए-कुल जारी

यानी हरकतें सारी
सब लहू की हरकत है

है लहू के दम से ही
अम्न भी, मोहब्बत भी

जंग भी, अदावत भी
शोरिश ओ बग़ावत भी

क्या ख़बर लहू क्या है
गर्दिशें लहू की जब

मुझ में शोर करती हैं
बे-ख़ुदी के नश्शे में

जिस्म का हर इक ख़लिया
रक़्स करने लगता है

और फिर ये होता है
ख़ुश्कियों का हर ज़र्रा

पानियों का हर क़तरा
एक बे-बदन जज़्बा

रक़्स करने लगता है
इस जिन्नों के आलम में

ज़ख़्म जाग जाते हैं
दर्द चीख़ उठता है

और फिर ये होता है
रूह-ओ-दिल की वादी में

नग़्मे गूँज उठते हैं
नग़्मा-हा-ए-सेहर-अंगेज़

बे-कराँ फ़ज़ाओं में
ला-मकाँ ख़लाओं में

सोज़ और फ़ुग़ाँ बन कर
मीठी लय में ढल ढल कर

जब बिखरने लगते हैं
ऐसे सेहर-आलम में

एक कैफ़-ओ-मस्ती का
नश्शा छाने लगता है

और फिर ये होता है
काएनात की हर शय

गुनगुनाने लगती है
और फिर वही नग़्मे

रूह-ओ-दिल के छालों को
तार, तार ज़ख़्मों को

नीम-जाँ कराहों को
लाला-ज़ार दाग़ों को

जागते फफूलों को
मस्त लोरियाँ दे कर

ख़्वाब के गुलिस्ताँ में
लापता ज़माने तक

यूँ ही छोड़ देते हैं
अस्ल में वही नग़्मे

दर्द का मुदावा हैं!!