रात के पिछले पहर की सुनसान सड़कें
रिम-झिम बरसती बारिश की फुवार में भीगती
जैसे जी उठी थीं
जब मेरे हाथ अपने हाथों में लिए तुम ने
लम्स की हिद्दत से बोझल होती
बे-तरतीब साँसों के बीच उलझती
अपनी दिल-नशीन आवाज़
मेरे कानों में तुम्हारे लिए
मेरी आख़िरी नज़्म सूरत उतारी थी
इस अनमोल लम्हे में
तुम्हारी ज़ात के सेहर में खोई हुई मैं
किसी अंजान सी याद की कसक तले
धीरे से सुलगते हुए तुम
मोहब्बत का उलूही नग़्मा अलापतीं
गाड़ी के शीशों से टकरातीं
रिम-झिम बरसती बूँदें
डैश-बोर्ड पे धरी भाप उड़ाती
हमारे लबों में पैवस्त होने को बे-क़रार
काफ़ी की दो मुंतज़िर प्यालियाँ
चहार-सू छाई तुम्हारे एहसास की ख़ुशबू से
जैसे जावेदाँ हो चले थे
याद नहीं पड़ता है अब
कि मैं तुम और काफ़ी की महक
बारिश के हाले में
तुम्हारी नज़्मों की छतरी तले
एक दूसरे में कितना घुल गए थे
बस इतना पता है
कि
वक़्त
इस लम्हे
अपनी मुट्ठी में क़ैद
हमारे हिस्से के पल
हम पे वारने
ठहर गया था
नज़्म
मैं और तुम
मैमूना अब्बास ख़ान