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महरूमी | शाही शायरी
mahrumi

नज़्म

महरूमी

अख़्तर-उल-ईमान

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तू भी तक़दीर नहीं दर्द भी पाइंदा नहीं
तुझ से वाबस्ता वो इक अहद वो पैमान-ए-वफ़ा

रात के आख़िरी आँसू की तरह डूब गया
ख़्वाब-अंगेज़ निगाहें वो लब-ए-दर्द-फ़रेब

इक फ़साना है जो कुछ याद रहा कुछ न रहा
मेरे दामन में न कलियाँ हैं न काँटे न ग़ुबार

शाम के साए में वामाँदा सहर बैठ गई
कारवाँ लौट गया मिल न सकी मंज़िल-ए-शौक़

एक उम्मीद थी सो ख़ाक-बसर बैठ गई
एक दो-राहे पे हैरान हूँ किस सम्त बढ़ूँ

अपनी ज़ंजीरों से आज़ाद नहीं हूँ शायद
मैं भी गर्दिश-ए-गह-ए-अय्याम का ज़िंदानी हूँ

दर्द ही दर्द हूँ फ़रियाद नहीं हूँ शायद
ज़ेर-ए-मिज़्गाँ तपिश-ए-आह के पिघलाए हुए

डबडबाते हुए तारों से मुझे क्या लेना
तेरे आँसू मिरे दाग़ों को नहीं धो सकते

तेरे फूलों की बहारों से मुझे क्या लेना
अपने अंजाम की तशवीश अब आइंदा नहीं