EN اردو
मबादा | शाही शायरी
mabaada

नज़्म

मबादा

सलमान सरवत

;

बड़ी हैरान-कुन है
हक़ीक़त ख़्वाब है या ख़्वाब से आगे की मंज़िल

ये दुनिया ख़्वाब की दुनिया पे सब्क़त ले गई है
फ़सानों से फ़ुज़ूँ-तर ज़िंदगी है

गुमाँ की सरहदें हों या तख़य्युल की उड़ानें
ख़िरद की जस्त से पीछे कहीं पीछे दिखाई दे रही हैं

ख़िरद की दस्तरस में क्या नहीं है
नहीं है ग़ैर-मुमकिन

कभी इम्कान से जो मावरा था
फ़क़त इक दास्ताँ है

गए वक़्तों में जो राइज असातीरी ख़ुदा था
दर-ए-ईजाद की चौखट पे हैरत सुरंगों है

ये सब इदराक का दस्त-ए-जुनूँ है
पस-ए-इदराक जल्वा-आफ़रीं है अक़्ल की जादू-निगाही

शुऊर-ए-अस्र-ए-हाज़िर में सिमटती है ख़ुदाई
समाअ'त का ये आलम है जो गुम-गश्ता सदाएँ थी सुनाई दे रही हैं

बसारत उस बला की है कि ज़र्रे में भी दुनियाएँ दिखाई दे रही हैं
जहान-ए-आगही के रास्तों पर चलते चलते

सितारों को सर-ए-इम्काँ तलक अब ला चुके हैं
नई दुनियाओं के हम भेद क्या क्या पा चुके हैं

ख़िरद ये चाहती है मौत को भी ज़ेर कर दे
वजूद-ए-हस्त फैला दे क़याम ज़िंदगी ता-देर कर दे

ख़िरद की ये फ़ुसूँ-कारी ये इतनी तेज़-रफ़्तारी कहाँ जा कर थमेगी
कहाँ पर ख़त्म होगी

कहानी जुस्तुजू की
जहाँ इंसान की उगला पड़ाव है वो मंज़िल

वो मंज़िल अजनबी रस्तों का हासिल
किसी अंजान दुनिया से मुमासिल

मुझे ये ख़ौफ़ खाए जा रहा है
कि अपनी ज़ात अपने आप से हम

कहीं निकलें तो इतनी दूर जा पहुँचें जहाँ से वापसी मुमकिन नहीं हो