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मा'ज़रत | शाही शायरी
mazarat

नज़्म

मा'ज़रत

मंसूर अहमद

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मेरे ख़्वाब घरौंदे में मेरे साथ हैं
मुर्दा लम्हों के बे रुत बासी कैलन्डर

गुज़री कल के भीगे भीगे से पछतावे
आने वाली कल के बे कल से अंदेशे

सूखे फूलों की टहनी पर
पतझड़ के झोंकों से उड़ती बे-घर तितली

पीले पत्तों की मुरझाई बेल से लिपटी
सहमी चिड़िया

इस की आँखों के गहरे वीरान समुंदर
कमरे के कोने में संवरी गूँगी गुड़िया

शेल्फ़ में रक्खी सजी-सजाई सर्द किताबें
रस्ता ढूँढती भटकी भटकी सुब्हें शामें

ख़ुद ही सोचो
ऐसे पुर-आवाज़ हुजूम में

ऐसे घर में
तुम को ला के कहाँ बिठाऊँ