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माह-ओ-साल | शाही शायरी
mah-o-sal

नज़्म

माह-ओ-साल

मुस्तफ़ा ज़ैदी

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इसी रविश पे है क़ाइम मिज़ाज-ए-दीदा-ओ-दिल
लहू में अब भी तड़पती हैं बिजलियाँ कि नहीं

ज़मीं पे अब भी उतरता है आसमाँ कि नहीं?
किसी के जैब-ओ-गरेबाँ की आज़माइश में

कभी ख़ुद अपनी क़बा का ख़याल आता है
ज़रा सा वसवसा-ए-माह-ओ-साल आता है?

कभी ये बात भी सोची कि मुंतज़िर आँखें
ग़ुबार-ए-राहगुज़र में उजड़ गई होंगी

नज़र से टूट चुके होंगे ख़्वाब के रस्ते
वो माहताब सी नींदें बिछड़ गई होंगी

नियाज़-ए-ख़्वाजगी ओ शान-ए-सरवरी क्या है
शिआर-ए-मुशफ़िक़ी ओ तर्ज़-ए-दिलबरी क्या है

ये बे-रुख़ी ये अदा-ए-सितम भी पूछेंगे
हमारी उम्र के हो लो तो हम भी पूछेंगे