एक माह-ए-कामिल है मेरा
इस काएनात में
जिस की रौशनी में
जगमगाता है मेरा अक्स
मुनव्वर हैं मेरी राहें
नूर उस का है पुर-सुकून
वो तजल्ली है राह-ए-हयात की
उस की नर्म-ओ-नाज़ुक शुआ'ओं से
कू-ए-दिल में उजाला है
मेरे माह-ए-कामिल को
मेरे मौला
महफ़ूज़ रखना
नज़्म
माह-ए-कामिल
ख़दीजा ख़ान