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माएँ बूढ़ी होना भूल चुकी हैं | शाही शायरी
maen buDhi hona bhul chuki hain

नज़्म

माएँ बूढ़ी होना भूल चुकी हैं

हमीदा शाहीन

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ऊँची पीढ़ी पर बैठी
बरतावा करती

चौकस आँखें
हो के जैसी भूक से लड़ती

रोटी तोड़ते हाथों को तहज़ीब सिखाती
चुसके लेती जीभों को इक हद में रखती

प्यास बुझाने के आदाब बताती आँखें
बाछों से बहती ख़्वाहिश को पोंछने वाली

नज़रों में हलकोरे लेते लालच को चिमटे में भर के
जलती आग में झोंकने वाली

नन्हे हाथों से चिपकी छीना-झपटी को
ममता के पानी से धोने वाली आँखें

किस काजल को प्यारी हो गईं
बच्चे मिल कर खाना-पीना भूल गए हैं