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लिखना जो चाहता था | शाही शायरी
likhna jo chahta tha

नज़्म

लिखना जो चाहता था

ख़लील मामून

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लिखना जो चाहता था वो लिक्खा नहीं गया
नींदों में ख़्वाब मिट गए

अल्फ़ाज़ खो गए
इक ख़ामोशी का पेड़ मिरे दिल में बो गए

बारिश में बद-हवासी के
सारे नुक़ूश हर्फ़ों के धुँदला के बह गए

आँसू ने जो भी देखा था उस को मिटा दिया
दिल ने हवस की आग को सारी जला दिया

कोई न रंग-ओ-रूप
दिल-ए-दर्द के क़रीब

आशा भी मिट गई है निराशा भी मिट गई
दिल में कोई भी ज़ौक़-ए-तमाशा नहीं रहे

अपने लिए तो कोई भी अच्छा नहीं रहे
मंज़र नहीं रहे हैं तो आँखें नहीं रहीं

ख़ामोश है ज़बान कि बातें नहीं रहीं
सब पारा-पारा हो गया किस इफ़्तिराक़ में

ख़ाली मकान सा है कहाँ दरमियान में
कुछ ज़ेहन में नहीं है मैं लिक्खूँ तो क्या लिखूँ

सारे नुक़ूश घिरे हैं क़दम मैं कहाँ रखूँ
कोई रास्ता नहीं है मैं किस सम्त में चलूँ

मंज़िल दिखाई दे तो मैं उस की तरफ़ बढ़ूँ
आवाज़ खो गई कि इज़हार मैं करूँ

जी चाहता है चुल्लू भर पानी में ही मरूँ
कोई रास्ता नहीं है

बताओ मैं क्या करूँ
लिखना जो चाहता था वो लिक्खा नहीं गया

क्या क़ब्र में सुनाऊँगा उन्हें मैं दास्ताँ
मुनकिर-नकीर को मैं

बुलाऊँ न क्यूँ यहाँ
वो लफ़्ज़ साथ ले के आएँ

तो मैं लिक्खूँ
एक ऐसी नज़्म जो हो हिकायत नई नई

बन जाए जिस से मेरी भी क़िस्मत नई नई
आईना-ए-जमाल-ए-हुवैदा को क्या हुआ

दीदा की रौशनी को नज़ारा को क्या हुआ
सब खो गए हैं दानिश ओ बीनिश कहाँ चलें

अब वक़्त ही नहीं है कि दिल को समेट लें
सब कुछ उधार खाया था कैसे अदा करें

इस नफ़्स कर स्वाद में जी कर भी किया करें
दरिया किनारे जाएँ वहाँ डूब मरो हैं

फिर इस के बा'द होगा क्या
मगर फ़न हम को कुछ नहीं

हाँ जानते हैं
दूर की गाँव के कनार

उगलेगी रास्ता हो के बहुत याद-ए-बे-कराँ
हाथों में अपनी पास से कमी लाएगी बहार

घबरा के सारे गाँव के बासी पुकारेंगे
जुलूसी जलाओ नाक के कीड़े सिधारेंगे

फिर चलो चलो
लकड़ियों के ढेर पर हमें

करेंगे सवार वो
कि बन के फिर

आग के निसार
जब राख अपनी दरिया में फिर से बहाएँगे

साहिल की मिट्टी में नए गुल मुस्कुराएँगे
खेतों में ताज़ा बूटे

नए पौदे
फिर से उभर आएँगे

शायद कि ख़त्म हो न कभी भी ये सिलसिला
कितना भी तुम पुकारो उसे देर देर तक

कितनी ही कर लो बैठ कर तुम नई दुआ
गर आसान होता वो सुनना

तुम्हारी निदा
करता कोई दवा

होता न सानेहा
हर हर क़दम पे करते

सज्दा हर कहीं
इस ज़िंदगी का होता

हर इक लम्हा जाँ-फ़िज़ा
हर पल में नूर होता

सुनसान वादियों में
चमकता ये क़ाफ़िला

और फैलती ज़मीन पर
इस नूर की नहा

हर सम्त चाँद होता
हर इक सम्त आफ़्ताब

फिर पैकरों में ढल के हर इक ख़्वाब
आते ही मिरे रू-ब-रू

नया सा क़लम कोई
चलते हम इस के साथ बहुत दूर पर कहीं

फिर लिखते दास्तान-ए-वजूद-ओ-अदम कहीं
रुकता न फिर कहीं भी

हमारा क़लम कहीं
लिखना जो चाहता था वो लिखा नहीं गया