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लरज़ता दीप | शाही शायरी
larazta dip

नज़्म

लरज़ता दीप

शकेब जलाली

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दूर शब का सर्द हात
आसमाँ के ख़ेमा-ए-ज़ंगार की

आख़िरी क़िंदील गुल करने बढ़ा
और कोमल चाँदनी

एक दर-बस्ता घरौंदे से परे
मुज़्महिल पेड़ों पे गिर कर बुझ गई

बे-निशाँ साए की धीमी चाप पर
ओंगते रस्ते के हर ज़र्रे ने पल भर के लिए

अपनी पलकों की बुझी दर्ज़ों से झाँका
और आँखें मूँद लें

उस समय ताक़-ए-शिकस्ता पर लरज़ते दीप से
मैं ने पूछा

हम-नफ़स
अब तिरे बुझने में कितनी देर है?