साया जब भी ढलता है
कुछ न कुछ बदलता है
लम्हा एक लर्ज़िश है
इक बसीत जुम्बिश है
जैसे होंट मिलते हैं
जैसे फूल खिलते हैं
जैसे नूर बढ़ता है
जैसे नश्शा चढ़ता है
नज़्म
लम्हा
अहमद नदीम क़ासमी
नज़्म
अहमद नदीम क़ासमी
साया जब भी ढलता है
कुछ न कुछ बदलता है
लम्हा एक लर्ज़िश है
इक बसीत जुम्बिश है
जैसे होंट मिलते हैं
जैसे फूल खिलते हैं
जैसे नूर बढ़ता है
जैसे नश्शा चढ़ता है