EN اردو
लख़्त लख़्त | शाही शायरी
laKHt laKHt

नज़्म

लख़्त लख़्त

अमीक़ हनफ़ी

;

ये टुकड़े ये रेज़े ये ज़र्रे ये क़तरे ये रेशे
ये मेरी समझ की नसीनी के पादान

इन्हें जोड़ता हूँ तो कोई बदन
न कोई सुराही न सहरा न दरिया न कोई शजर कुछ भी बनता नहीं

लकीरों से ख़ाके उभरते हैं लेकिन
ये कोशिश मिटाई हुई सूरतें फिर बनाती नहीं

कि वो जान जिस से ये सारा जहान
हरारत से हरकत से मामूर था अब कहाँ है

मेरी अक़्ल ने सर्द आहन के बे-जान टुकड़ों को आलात की शक्ल में ढाल कर
मिरे तोड़ने जोड़ने के अमल में लगाया

जला कर हर इक जिस्म को फूँक कर जान को राख से अपनी ज़म्बील भर ली
तो इस राख से कैसे वो सूरतें फिर जनम लें

जिन्हें वक़्त ने और मैं ने मिटाया