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लहू का सुराग़ | शाही शायरी
lahu ka suragh

नज़्म

लहू का सुराग़

फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

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कहीं नहीं है कहीं भी नहीं लहू का सुराग़
न दस्त-ओ-नाख़ुन-ए-क़ातिल न आस्तीं पे निशाँ

न सुर्ख़ी-ए-लब-ए-खंजर न रंग-ए-नोक-ए-सिनाँ
न ख़ाक पर कोई धब्बा न बाम पर कोई दाग़

कहीं नहीं है कहीं भी नहीं लहू का सुराग़
न सर्फ़-ए-ख़िदमत-ए-शाहाँ कि ख़ूँ-बहा देते

न दीं की नज़्र कि बैआना-ए-जज़ा देते
न रज़्म-गाह में बरसा कि मो'तबर होता

किसी अलम पे रक़म हो के मुश्तहर होता
पुकारता रहा बे-आसरा यतीम लहू

किसी को बहर-ए-समाअत न वक़्त था न दिमाग़
न मुद्दई न शहादत हिसाब पाक हुआ

ये ख़ून-ए-ख़ाक-नशीनाँ था रिज़्क़-ए-ख़ाक हुआ