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लहु नज़्र दे रही है हयात | शाही शायरी
lahu nazr de rahi hai hayat

नज़्म

लहु नज़्र दे रही है हयात

साहिर लुधियानवी

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मिरे जहाँ में समन-ज़ार ढूँडने वाले
यहाँ बहार नहीं आतिशीं बगूले हैं

धनक के रंग नहीं सुरमई फ़ज़ाओं में
उफ़ुक़ से ता-बा-उफ़ुक़ फाँसियों के झूले हैं

फिर एक मंज़िल-ए-ख़ूँ-बार की तरफ़ हैं रवाँ
वो रहनुमा जो कई बार राह भूले हैं

बुलंद दा'वा-ए-जम्हूरियत के पर्दे में
फ़रोग़-ए-मजलिस-ओ-ज़िन्दाँ हैं ताज़ियाने हैं

ब-नाम-ए-अम्न हैं जंग-ओ-जदल के मंसूबे
ब-शोर-ए-अद्ल तफ़ावुत के कार-ख़ाने हैं

दिलों पे ख़ौफ़ के पहरे लबों पे क़ुफ़्ल सुकूत
सुरों पे गर्म सलाख़ों के शामियाने हैं

मगर हटे हैं कहीं जब्र और तशद्दुद मिटे
वो फ़लसफ़े कि जिला दे गए दिमाग़ों को

कोई सिपाह-ए-सितम पेशा चूर कर न सकी
बशर की जागी हुई रूह के अयाग़ों को

क़दम क़दम पे लहू नज़र दे रही है हयात
सिपाहियों से उलझते हुए चराग़ों को

रवाँ है क़ाफ़िला-ए-इर्तिक़ा-ए-इंसानी
निज़ाम-ए-आतिश-ओ-आहन का दिल हिलाए हुए

बग़ावतों के दुहल बज रहे हैं चार तरफ़
निकल रहे हैं जवाँ मिशअलें जलाए हुए

तमाम अर्ज़-ए-जहाँ खोलता समुंदर है
तमाम कोह-ओ-बयाबाँ हैं तिलमिलाए हुए

मिरी सदा को दबाना तो ख़ैर मुमकिन है
मगर हयात की ललकार कौन रोकेगा

फ़सील-ए-आतिश-ओ-आहन बहुत बुलंद सही
बदलते वक़्त की रफ़्तार कौन रोकेगा

नए ख़याल की पर्वाज़ रोकने वालो
नए अवाम की तलवार कौन रोकेगा

पनाह लेता है जिन मजलिसों में तीरा निज़ाम
वहीं से सुब्ह के लश्कर निकलने वाले हैं

उभर रहे हैं फ़ज़ाओं में अहमरीं परचम
किनारे मश्रिक-ओ-मग़रिब के मिलने वाले हैं

हज़ार बर्क़ गिरे लाख आँधियाँ उठें
वो फूल खिल के रहेंगे जो खिलने वाले हैं