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लब-ए-तनूर | शाही शायरी
lab-e-tanur

नज़्म

लब-ए-तनूर

सलमान अंसारी

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मैं अक्सर रात की तन्हाई से ये पूछता हूँ
कि मेरा आज मेरे कल से क्यूँकर मुख़्तलिफ़ है

वही मैं हूँ वही दीवानगी है
वही वहशत वही फ़िक्र-ए-मईशत

ये बेचैनी ये वीरानी
मुझे क्यूँ खाए जाती है

मगर जज़्बों से आरी दर्द से ग़ाफ़िल ये तन्हाई
सदा ख़ामोश रहती है

मुझे लगता है तन्हाई
फ़क़त बहरी नहीं गूँगी भी है शायद

वही गम्भीर सन्नाटा वही वीरान तारीकी
भला तन्हाई भी कुछ बोलती है

मगर बदली से अक्सर
चाँद अपना सर निकाले

मुझे आवाज़ दे कर पूछता है
कि दीवाने तू अब तक जागता है

ये कैसी फ़िक्र-ए-रोज़-ओ-शब
ये कैसी गिर्या-ज़ारी

सुलगती धीमे धीमे
राख बनती रात

आख़िर कट ही जाएगी
मगर तू कोई ताजिर है

न साहूकार न बनिया
तो फिर क्यूँ आज-कल में बाँटता है

दर्द की दौलत
ये वो सौदा नहीं

जो हर किसी को रास आ जाए
कठिन हो या पुर-आसाइश मगर ये रात गुज़रेगी

''शब-ए-सिमवर गुज़श्त लब-ए-तनूर गुज़श्त