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लब-ए-जू-ए-बारे | शाही शायरी
lab-e-ju-e-bare

नज़्म

लब-ए-जू-ए-बारे

मीराजी

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एक ही पल के लिए बैठ के फिर उठ बैठी
आँख ने सिर्फ़ ये देखा कि नशिस्ता बुत है

ये बसारत को न थी ताब कि वो देख सके
कैसे तलवार चली, कैसे ज़मीं का सीना

एक लम्हे के लिए चश्मे की मानिंद बना
पेच खाते हुए ये लहर उठी दिल में मिरे

काश! ये झाड़ियाँ इक सिलसिला-ए-कोह बनें
दामन-ए-कोह में मैं जा के सितादा हो जाऊँ

ऐसी अनहोनी जो हो जाए तो क्यूँ ये भी न हो
ख़ुश्क पत्तों का ज़मीं पर जो बिछा है बिस्तर

वो भी इक साज़ बने साज़ तो है साज़ तो है
नग़्मा बेदार हुआ था जो अभी कान तिरे

क्यूँ उसे सुन न सके सुनने से मजबूर रहे
पर्दा-ए-चश्म ने सिर्फ़ एक नशिस्ता बुत को

ज़ेहन के दायरा-ए-ख़ास में मरकूज़ किया
याद आता है मुझे कान हुए थे बेदार

ख़ुश्क पत्तों से जब आई थी तड़पने की सदा
और दामन की हर इक लहर चमक उट्ठी थी

पड़ रहा था उसी तलवार का साया शायद
जो निकल आई थी इक पल में निहाँ-ख़ाने से

जैसे बे-साख़्ता अंदाज़ में बिजली चमके
लेकिन इस दामन-ए-आलूदा की हर लहर मिटी

जल-परी देखते ही देखते रू-पोश हुई
मैं सितादा ही रहा मैं ने न देखा (अफ़्सोस!)

कैसे तलवार चली कैसे ज़मीं का सीना
एक लम्हे के लिए चश्मे की मानिंद बना

दामन-ए-कोह में इस्तादा नहीं हूँ इस वक़्त
झाड़ियाँ सिलसिला-ए-कोह नहीं पर्दा हैं

जिस के उस पार झलकता नज़र आता है मुझे
मंज़र अंजान, अछूती सी दुल्हन की सूरत

हाँ तसव्वुर को मैं अब अपने बना कर दूल्हा
इसी पर्दे के निहाँ-ख़ाने में ले जाऊँगा

कैसे तलवार चली कैसे ज़मीं का सीना
दिल-ए-बे-ताब की मानिंद तड़प उट्ठा था

एक बे-साख़्ता अंदाज़ में बिजली की तरह
जल-परी गोशा-ए-ख़लवत से निकल आई थी!

ज़िंदगी गर्म थी हर बूँद में आबी पाऊँ
ख़ुश्क पत्तों पे फिसलते हुए जा पहुँचे थे!

मैं भी मौजूद था इक किर्मक-ए-बे-नाम-ओ-निशाँ
मैं ने देखा कि घटा शक़ हुई धारा निकली

बर्क़-रफ़्तारी से इक तीर कमाँ ने छोड़ा
और वो ख़म खा के लचकता हुआ थर्रा के गिरा

क़ुल्ला-ए-कोह से गिरते हुए पत्थर की तरह
कोई भी रोक न थी उस के लिए उस के लिए

ख़ुश्क पत्तों का ज़मीं पर ही बिछा था बिस्तर
उसी बिस्तर पे वो अंजान परी लेट गई!

और मैं किर्मक-ए-बे-नाम, घटा की सूरत
इसी उम्मीद में तकता रहा तकता ही रहा

अब इसी वक़्त कोई जल की परी आ जाए
बाँसुरी हाथ में ले कर मैं ग्वाला बन जाऊँ

जल-परी आए कहाँ से? वो इसी बिस्तर पर
मैं ने देखा अभी आसूदा हुई लेट गई

लेकिन अफ़्सोस कि मैं अब भी खड़ा हूँ तन्हा
हाथ आलूदा है, नाम-दार है, धुँदली है नज़र,

हाथ से आँखों के आँसू तो नहीं पोंछे थे!