ऊँची ऊँची इमारतों में मेरे हिस्से का आसमान लापता
मसरूफ़ से इस शहर में जिस्म तो हैं इंसान लापता
सुनते थे कभी मिला करते थे जहाँ दिल के बदले दिल
तेरे इस शहर में अब इश्क़ की है वो दुकान लापता
इस शहर में बुत-कदे भी हैं और मस्जिदें भी तमाम
इंसान की फ़ितरत देख कर हुए हैं भगवान लापता
वाह री जम्हूरियत हम जिन्हें सौंपते हैं मुल्क अपना
उनमें अक़्ल है होशियारी है ताक़त है बस ईमान लापता
न जाने कौन सी बिजली गिरी कि उड़ना भूल गया
मेरे दिल के अरमानों के पर तो हैं पर उड़ान लापता
नज़्म
लापता
माधव अवाना