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क्या करूँ | शाही शायरी
kya karun

नज़्म

क्या करूँ

जोश मलीहाबादी

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फिर दिल में दर्द सिलसिला-ए-जुम्बा है क्या करूँ
फिर अश्क गर्म-ए-दावत-ए-मिज़्गाँ है क्या करूँ

फिर चाक चाक सीना है आवाज़ दूँ किसे
फिर तार तार जैब-ओ-गरेबाँ है क्या करूँ

फिर इत्तिसाल-ए-गर्दन-ओ-ख़ंजर है क्या कहूँ
फिर इख़्तिलात-ए-ज़ख़्म-ओ-नमक-दाँ है क्या करूँ

फिर इक गिरह हरीफ़-ए-नफ़स है किसे बताऊँ
फिर इक खटक रफ़ीक़-ए-रग-ए-जाँ है क्या करूँ

सीने में एक दशना सा लेता है करवटें
रग रग में एक आग सी ग़लताँ है क्या करूँ

जिस चीज़ पर मदार था दरमान-ए-ज़ीस्त का
वो शय फिर आज दर्द का उनवाँ है क्या करूँ

फिर सर पर अब्र-ए-दौर-ए-जुनूँ है घिरा हुआ
फिर दिल में बू-ए-ज़ुल्फ़ परेशाँ है क्या करूँ

फिर इश्क़-ए-ना-सुबूर का परतव है रूह पर
फिर दिल हुज़ूर-ए-अक़्ल पशेमाँ है क्या करूँ

बीते दिनों की याद पर अफ़्शाँ है क्या करूँ
रातों की नम हवाओं में तारों की छाँव में

बीते दिनों की याद पर-अफ़्शाँ है क्या करूँ
जिस चाँदनी को खोए हुए मुद्दतें हुईं

फिर ज़ेहन के उफ़ुक़ से नुमायाँ है क्या करूँ
तक़दीर ने कभी जो निकाला था इक जुलूस

फिर जादा-ए-नफ़स पे ख़िरामाँ है क्या करूँ
वो ग़म कि दे चुका हूँ जिसे बार-हा शिकस्त

फिर दिल से 'जोश' दस्त-ओ-गरेबाँ है क्या करूँ