फिर दिल में दर्द सिलसिला-ए-जुम्बा है क्या करूँ
फिर अश्क गर्म-ए-दावत-ए-मिज़्गाँ है क्या करूँ
फिर चाक चाक सीना है आवाज़ दूँ किसे
फिर तार तार जैब-ओ-गरेबाँ है क्या करूँ
फिर इत्तिसाल-ए-गर्दन-ओ-ख़ंजर है क्या कहूँ
फिर इख़्तिलात-ए-ज़ख़्म-ओ-नमक-दाँ है क्या करूँ
फिर इक गिरह हरीफ़-ए-नफ़स है किसे बताऊँ
फिर इक खटक रफ़ीक़-ए-रग-ए-जाँ है क्या करूँ
सीने में एक दशना सा लेता है करवटें
रग रग में एक आग सी ग़लताँ है क्या करूँ
जिस चीज़ पर मदार था दरमान-ए-ज़ीस्त का
वो शय फिर आज दर्द का उनवाँ है क्या करूँ
फिर सर पर अब्र-ए-दौर-ए-जुनूँ है घिरा हुआ
फिर दिल में बू-ए-ज़ुल्फ़ परेशाँ है क्या करूँ
फिर इश्क़-ए-ना-सुबूर का परतव है रूह पर
फिर दिल हुज़ूर-ए-अक़्ल पशेमाँ है क्या करूँ
बीते दिनों की याद पर अफ़्शाँ है क्या करूँ
रातों की नम हवाओं में तारों की छाँव में
बीते दिनों की याद पर-अफ़्शाँ है क्या करूँ
जिस चाँदनी को खोए हुए मुद्दतें हुईं
फिर ज़ेहन के उफ़ुक़ से नुमायाँ है क्या करूँ
तक़दीर ने कभी जो निकाला था इक जुलूस
फिर जादा-ए-नफ़स पे ख़िरामाँ है क्या करूँ
वो ग़म कि दे चुका हूँ जिसे बार-हा शिकस्त
फिर दिल से 'जोश' दस्त-ओ-गरेबाँ है क्या करूँ
नज़्म
क्या करूँ
जोश मलीहाबादी