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क्या करें | शाही शायरी
kya karen

नज़्म

क्या करें

फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

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मिरी तिरी निगाह में
जो लाख इंतिज़ार हैं

जो मेरे तेरे तन-बदन में
लाख दिल-फ़िगार हैं

जो मेरी तेरी उँगलियों की बे-हिसी से
सब क़लम नज़ार हैं

जो मेरे तेरे शहर की
हर इक गली में

मेरे तेरे नक़्श-ए-पा के बे-निशाँ मज़ार हैं
जो मेरी तेरी रात के

सितारे ज़ख़्म ज़ख़्म हैं
जो मेरी तेरी सुब्ह के

गुलाब चाक चाक हैं
ये ज़ख़्म सारे बे-दवा

ये चाक सारे बे-रफ़ू
किसी पे राख चाँद की

किसी पे ओस का लहू
ये है भी या नहीं, बता

ये है, कि महज़ जाल है
मिरे तुम्हारे अंकबूत-ए-वहम का बुना हुआ

जो है तो इस का क्या करें
नहीं है तो भी क्या करें

बता, बता,
बता, बता