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कुश्तगान-ए-ख़ंजर-ए-तस्लीम-रा | शाही शायरी
kushtagan-e-KHanjar-e-taslim-ra

नज़्म

कुश्तगान-ए-ख़ंजर-ए-तस्लीम-रा

फर्रुख यार

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सकीना!
जब कहानी ख़त्म होगी

ख़ाक की तासीर बदलेगी
ज़मीं शोला-ब-शोला

खींच ली जाएगी उन तारीक कोनों में
जिन्हें रौशन ज़माने

सत्र-ए-मुस्तहकम के अंदर फ़ासलों में रख गए थे
सकीना!

जब बदन फ़र्श-ए-सितम पर
दो क़दम चलने लगेगा

अस्र-ए-बे-हंगाम से जीवन
नई दुनियाओं के रस्ते निकालेगा

म्यान-ए-आब-ओ-गिल
किस को ख़बर

क्या क्या निकल आए
हमारे देखते अन-देखते

क्या क्या बदल जाए
हमारे साथ गिर्द-ओ-पेश

जितनी सूरतें हैं
सब फ़ना के रक़्स में हैं

और ये रक़्स-ए-फ़ना
अपना इरादा तो नहीं है

बयाबानों की पैमाइश
मिरे चाक-ए-गरेबाँ से

ज़ियादा तो नहीं है!