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कुल्लिया | शाही शायरी
kulliya

नज़्म

कुल्लिया

साइमा इसमा

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एक अंदाज़ से देखूँ तो हुमायूँ तुम हो
और इक तर्ज़ की बाबर मैं हूँ

रोज़-ओ-शब दर्द के फेरों में रहें
बार-ए-ग़म ख़ुद पे उठाने की दुआओं के सिवा

मुस्तजाबी का कोई ढंग न हो
तंदुरुस्ती भी कोई ताक़ अदद हो जैसे

दो पे तक़्सीम नहीं हो सकती
मेरे आज़ार में जितना भी इज़ाफ़ा होगा

उस क़दर तुम को शिफ़ा पहुँचेगी