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कुछ और हो भी तो राएगाँ है | शाही शायरी
kuchh aur ho bhi to raegan hai

नज़्म

कुछ और हो भी तो राएगाँ है

अय्यूब ख़ावर

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हवाएँ भी
बादबाँ भी मेरे

समुंदरों के सुकूत में
बे-लिबास नस्लों के रेज़ा रेज़ा जमाल के सब निशाँ भी मेरे

मिरे शिकस्ता वजूद की
लहलहाती फ़सलों पे

गिरने वाली शफ़ीक़ शबनम में रेत के आसमाँ भी मेरे
क़दीम लफ़्ज़ों के ग़म में बे-जान मंज़रों के जहाँ भी मेरे

सितारा-ए-दिल की वुसअतों में
खिले हुए जंगलों के असरार साअतों के गुमाँ भी मेरे

मिरे तसव्वुर के बोझ से टूटती ज़मीं पर
हलाक होते हुए लबों पर वफ़ाओं के सब निशाँ भी मेरे

गुलाब-चेहरों पे
सब्ज़ आँखों के मंज़रों में

नजात-ए-ग़म की शिकस्ता ख़्वाहिश की राख मेरी बुझे हुए कारवाँ भी मेरे
जो खो गए

और जो आने वाले दिनों का दुख है
वही मिरे बे-वजूद चेहरे

सितारा-ए-दिल की बे-पनाही का पासबाँ है
कुछ और हो भी तो राएगाँ है