तो ये दूध कोसा है!
ये दूध है और कोसा है
जिस से बदन की नसें ऊँघ जाती हैं
जिस से मिरे दिल की बा-क़ाएदा धड़कनों में
इज़ाफ़े की सूरत नहीं
ये वही दूध है जिस को फ़रहाद की गर्मी-ए-शौक़ ने
बीसतों की सियह चोटियों से उतारा
तू इस के लहू की हरारत का जूया हुआ
फिर भी कोसा रहा
ये वही दूध है
चाँदनी बन के जो गर्मियों के किसी माह की चौदहवीं रात को
आसमाँ पर ज़मीं पर दिलों में निगाहों में
बहता है लेकिन
किसी के लबों को जलाता नहीं है
ये सूरज का साया है लावा नहीं है!
तुम अपने पियाले को भट्टी में रख दो!
कि ये दूध उबलता रहे
ये प्याला भी ढल जाए
ये दूध जल जाए
और इस तरह मुश्क-ए-नाफ़ा बने
जिस की ख़ुशबू की ताक़त न लाए कोई शख़्स भी
जिस की ख़ुशबू से हर मग़्ज़ से ख़ून बहने लगे!
नज़्म
कोेसा दूध
शहज़ाद हसन