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कोई कुछ नहीं? | शाही शायरी
koi kuchh nahin?

नज़्म

कोई कुछ नहीं?

क़ाज़ी सलीम

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ख़ैर
कोई रब्त ही नहीं

वक़्त की तवील डोर ने
बे-इरादा एक कर दिया

सुब्ह ओ शाम घूम घूम कर ज़मीं
गिरफ़्त और सख़्त और सख़्त कर गई

जाने आज क्यूँ वही
धागे मेरी शाह-रग में

दूर तक धंसे हुए
वो सिरा ही मैं ने खो दिया

जिस से लोग
उलझे सुलझे ताने-बाने खोल कर

यूँ अलग निकल गए
जैसे वक़्त कुछ नहीं

वो सारे रास्ते
जिन पे गामज़न रहे

वो सारे हम-सफ़र
जो साथ साथ चल रहे थे

कुछ नहीं
कोई कुछ नहीं