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कोह-ए-निदा | शाही शायरी
koh-e-nida

नज़्म

कोह-ए-निदा

वज़ीर आग़ा

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सुब्ह-सवेरे
एक लरज़ती काँपती सी आवाज़ आती है

सोने वालो! तुम मालिक को भूल गए हो
तुम मालिक को भूल गए हो

फिर चमकीली मिल का सायरन
एक ग़लीज़ डराने वाली तुंद सदा के रूप में ढल कर

दीवारों से टकराता है
और गलियों के

तंग अँधेरे बाड़े में कोहराम मचा कर
भेड़ों के गल्ले को हाँक के ले जाता है

फिर इंजन की बरहम सीटी
मेख़ सी बन कर मेरे कान में गड़ जाती है

और शब भर की नुची हुई इक रेल की बोगी
अपनी कलाई इंजन के पंजे में दे कर

चल पड़ती है
फिर इक दम इक सन्नाटा सा छा जाता है

और मैं घड़ी की ज़ालिम सूइयों की टिक टिक में
दिन के ज़र्द पहाड़ पे चढ़ने लगता हूँ