वो ख़्वाब जो मेरी ज़िंदगी थे
वो कब के रद्दी की टोकरी में
पड़े हुए माँदगी के वक़्फ़े के मुंतज़िर हैं
कि मैं कभी कार-ज़ार-ए-हस्ती के शोर-ओ-ग़ुल से
थकूँ तो बस एक लम्हा रुक कर
उन्हें उठा लूँ
नज़्म
ख़्वाबों के रिश्ते
राशिद आज़र
नज़्म
राशिद आज़र
वो ख़्वाब जो मेरी ज़िंदगी थे
वो कब के रद्दी की टोकरी में
पड़े हुए माँदगी के वक़्फ़े के मुंतज़िर हैं
कि मैं कभी कार-ज़ार-ए-हस्ती के शोर-ओ-ग़ुल से
थकूँ तो बस एक लम्हा रुक कर
उन्हें उठा लूँ