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ख़्वाबों के रिश्ते | शाही शायरी
KHwabon ke rishte

नज़्म

ख़्वाबों के रिश्ते

राशिद आज़र

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वो ख़्वाब जो मेरी ज़िंदगी थे
वो कब के रद्दी की टोकरी में

पड़े हुए माँदगी के वक़्फ़े के मुंतज़िर हैं
कि मैं कभी कार-ज़ार-ए-हस्ती के शोर-ओ-ग़ुल से

थकूँ तो बस एक लम्हा रुक कर
उन्हें उठा लूँ