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ख़्वाब तमाशा(3) | शाही शायरी
KHwab tamasha(3)

नज़्म

ख़्वाब तमाशा(3)

कुमार पाशी

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संजय बोले
उतर दक्षिण पूरब पश्चिम

अब कोई भी मंज़र साफ़ नहीं
नक़्शे हैं कई पीले नीले

दो सय्यारे ऊपर नीचे
इक सूरज से टकरा ही गया

हर सम्त वही पीली आँधी
और अंधे झक्कड़ शो'लों के

तुम किस नुक़्ते की पूछते हो
अब कोई भी मंज़र साफ़ नहीं

अब कोई नहीं
हाँ वो भी नहीं

ये किस का ख़्वाब तमाशा है
मैं जिस में अकेला घूमता हूँ

हर सम्त वही पीली आँधी
और अंधे झक्कड़ शो'लों के

पल पल में उभरती औज चटख़ कर टूटती गिरती चट्टानें हैं
अब कोई नहीं

बस मेरी आँखें देखती हैं
बस मेरी आँखें देखती हैं