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ख़्वाब तमाशा(2) | शाही शायरी
KHwab tamasha(2)

नज़्म

ख़्वाब तमाशा(2)

कुमार पाशी

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तुम बतलाओ क्या जानते हो
क्या सोचते हो

और इस बे-कार तमाशे में क्यूँ ज़िंदा हो
ऊपर नीचे दाएँ बाएँ आगे पीछे

है एक रंग
जो कुछ भी था

वो सब कालक में डूब गया
जो कुछ भी है

वो रफ़्ता रफ़्ता रंग बदलता जाता है
ये चाँद ये सूरज सय्यारे

ये मंज़र मंज़र नज़्ज़ारे
इक ख़्वाब है सोए आदमी का

जो सोया है
शायद तन्वीम के ज़ेर-ए-असर

जाने कितने अंधे काले अंजान बरस
जो जागेगा तो

एक रंग
बस एक रंग

दाएँ बाएँ आगे पीछे ऊपर नीचे
इक काला बदबू-दार समुंदर दाएँ तरफ़

इक काला बदबू-दार समुंदर बाएँ तरफ़
आगे पीछे

ऊपर नीचे
तुम बतलाओ क्या जानते हो

क्या सोचते हो
और इस बे-कार तमाशे में

क्यूँ ज़िंदा हो