EN اردو
ख़्वाब की दिल्ली | शाही शायरी
KHwab ki dilli

नज़्म

ख़्वाब की दिल्ली

अता आबिदी

;

सपने में रात आई दिल्ली
दैर तलक बतयाई दिल्ली

पूछ रही थी हाल बताओ
गुज़रा कैसे साल बताओ

बसने वालों में दिल्ली के
बोलो सच्चे दोस्त नहीं थे

या कि बुज़ुर्गों की सोहबत में
कमी थी कुछ उन की शफ़क़त में

ब-यक नज़र हर चीज़ भुला दी
मंज़र को या ख़ुद को सज़ा दी

मैं जो तेरे दिल की अदा थी
क्या मेरी उल्फ़त ही ख़ता थी

गलियाँ सड़कें दफ़्तर होटल
हर जा है यादों की हलचल

आज में क्या ख़ूबी है जो यूँ
भूल चुके हो तुम अपना कल

हुस्न के हैं वो कौन से जल्वे
जो मेरे दामन में नहीं थे

क्या ऐसी उफ़्ताद पड़ी जो
भूल गए दिल-साज़ ज़मीं को

क्या मेरे साए के नीचे
राहत और आराम नहीं थे

माना पराई थी मैं हाए
अपनों से कितने सुख पाए

सवालों की इस आड़ में दिल्ली
वज्ह-ए-जुदाई पूछ रही थी

जमी थीं मुझ पर कई निगाहें
दिल में दबी थीं अपनी आहें

कहता क्या अल्फ़ाज़ नहीं थे
आँखों से आँसू बह निकले

सारी हालत जान गई वो
कह के मुझे नादान गई वो

सपने में रात आई दिल्ली
दैर तलक बतयाई दिल्ली