ग़रज़ की मैली दराज़ चादर
लपेट कर वो
मुनाफ़िक़त के सियाह बिस्तर पे सो रही थी
मिरी बरहना निगाह में रत-जगों की सुर्ख़ी जमी हुई है
पहाड़ सी रात रेज़ा रेज़ा बिखर रही थी
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नज़्म
ख़्वाब-गाह
नजीब अहमद
नज़्म
नजीब अहमद
ग़रज़ की मैली दराज़ चादर
लपेट कर वो
मुनाफ़िक़त के सियाह बिस्तर पे सो रही थी
मिरी बरहना निगाह में रत-जगों की सुर्ख़ी जमी हुई है
पहाड़ सी रात रेज़ा रेज़ा बिखर रही थी