सूरज हर रोज़
मेरी आँखों में भरी हुई
और शायद मरी हुई नींद को देख कर
अपने दिन का आग़ाज़ करता है
मैं
घर से दफ़्तर जाती हुई सड़क पर
रेंगता हुआ
आने वाली नस्लों पर एहसान करता हूँ
मैं दफ़्तर अपनी मर्ज़ी से जाता हूँ
लेकिन दफ़्तर में मेरी मर्ज़ी का काम नहीं होता
मैं काग़ज़ पर ख़्वाब और दुख एक साथ लिख कर
घर लौटता हूँ
घर की बे-तरतीबी और ऊँघती हुई दीवारें
मेरा इस्तिक़बाल करती हैं
मैं बिस्तर पर सोने के लिए लौटता हूँ
और जागता रहता हूँ
वो
डाइरी में ख़ुद-साख़्ता दुख लिखती है
और सुकून से सो जाती है
नज़्म
ख़ुद-साख़्ता दुख
अली साहिल