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ख़ुद-कुशी | शाही शायरी
KHud-kushi

नज़्म

ख़ुद-कुशी

मजीद अमजद

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हाँ मैं ने भी सुना है तुम्हारे पड़ोस में
कल रात एक हादसा-ए-क़त्ल हो गया

हाँ मैं ने भी सुना है कि इक जाम ज़हर का
दो जीवनों की नन्ही सी नौका डुबो गया

कोई दुखी जवान वतन अपना छोड़ कर
अपनी सखी के साथ इक और देस को गया

दुनिया के ख़ारज़ार में सौ ठोकरों के बअ'द
यूँ आख़िर उन का क़िस्सा-ए-ग़म ख़त्म हो गया

यूँ तय किया उन्हों ने मोहब्बत का मरहला
एक एक घोंट और जो होना था हो गया

दोनों की आँख में था इक इक अश्क मुंजमिद
जो ख़ुश्क ख़ुश्क पलकों की नोकें भिगो गया

कुछ कहने पाई थी कि वो ख़ामोश हो गई
कोई जवाब देने को था वो कि सो गया

पैमाना-ए-अजल का वो तल्ख़ाबा इस तरह
रूहों के ज़ख़्मों सीनों के दाग़ों को धो गया

अक्सर यूँही हुआ है कि उल्फ़त का इम्तिहाँ
दुश्वारियों में मौत की आसान हो गया

आओ ना हम भी तोड़ दें इस दाम-ए-ज़ीस्त को
संग-ए-अजल पे फोड़ दें इस जाम-ए-ज़ीस्त को