उस सुब्ह जब कि मेहर 
दरख़्शाँ है चार-सू 
मौसम बहार का है 
ग़ज़ल-ख़्वाँ हैं सब तुयूर 
सब्ज़े सबा के लम्स से ख़ुश हैं निहाल हैं 
इक साया इस दरख़्त इसी शाख़ के तले 
तन्हाइयों की रुत में है मग़्मूम ओ मुज़्तरिब 
बंद-ए-क़बा-ए-शब से उलझता है बार बार
        नज़्म
ख़ेमा-ए-याद
हसन नईम

