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खेल | शाही शायरी
khel

नज़्म

खेल

शोरिश काश्मीरी

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या-रब तिरे बंदों से क़ज़ा खेल रही है
इक खेल ब-उन्वान-ए-दग़ा खेल रही है

जिस खेल को सरसर ने भी खेला न चमन में
उस खेल को अब बाद-ए-सबा खेल रही है

उलझे हुए हालात के तेवर हैं ख़तरनाक
बदले हुए मौसम की हवा खेल रही है

रिंदान-ए-तही-दस्त सज़ा-वार-ए-सुबू हैं!
टूटी हुई तौबा से घटा खेल रही है

लग़ज़ीदा क़दम इज़्न-ए-ख़िरद माँग रहे हैं
दुज़्दीदा निगाहों में हया खेल रही है

औरंग-ए-शही हेच है रिंदों की नज़र में
महलों की बुलंदी पे क़ज़ा खेल रही है

एहराम से जुब्बे से मुसल्ले से अबा से
'शोरिश' मिरी बे-ख़ौफ़ नवा खेल रही है