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ख़याल | शाही शायरी
KHayal

नज़्म

ख़याल

अफ़रोज़ आलम

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बचपन में माँ-बाप का साया
जवानी तन्हा तन्हा

आज ख़याल के गलियारे से
किस वादी में पहुँचा हूँ

जहाँ मुझे ऐसा लगता है
तन्हाई सन्नाटा बन कर

मेरा पीछा करती है
शायद कोई याद का साया

इक मोनिस इक साथी है
कभी कभी

ऐसा लगता है
ये गुलनार जीवन मेरा

ऐसे मोड़ पे छोड़ेगा
जहाँ न कोई साथी होगा

और न कोई मोनिस
बस मेरी तन्हाई होगी

बीते दिनों की यादें होंगी
ऐसे ख़यालात सताते हैं

जब जब मैं तन्हा होता हूँ