रोज़-ओ-शब रहता है मुझ को उन के ख़त का इंतिज़ार
किस तरह बहलाऊँ दिल को किस तरह पाऊँ क़रार
दर पे बाँधे टुकटुकी मैं देखती हूँ बार बार
पास मेरे आज शायद आएगा पैग़ाम-ए-यार
पा के आहट नामा-बर की कुछ सुकूँ पाती हूँ मैं
इक हयात-ए-नौ मुझे मिलती है खिल जाती हूँ मैं
दूर होती है तड़प काफ़ूर हो जाती है यास
देखती हूँ शौक़ की नज़रों से अपनी आस-पास
नामा क्या आया कि गोया आ गए वो मेरे पास
फूल जाती हूँ मसर्रत से बदलती हूँ लिबास
पढ़ती रहती हूँ मैं पहरों अंत कुछ माता नहीं
दर्द-ओ-ग़म की दास्ताँ भी ख़त्म होती है कहीं
ख़त को आँखों से लगा कर चूमती हूँ दम-ब-दम
ताकि क़ल्ब-ए-मुज़्तरिब की सारी बेताबी हो कम
तोलती हूँ हर्फ़ सारे इश्क़ की मीज़ान में
और समो लेती हूँ उन का हुस्न अपनी जान में
नज़्म
ख़त का इंतिज़ार
अमीर औरंगाबादी