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खंडर और फूल | शाही शायरी
khanDar aur phul

नज़्म

खंडर और फूल

बलराज कोमल

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मकाँ जल चुका है
खंडर है सियाही है बुझती हुई राख की सिसकियाँ हैं

मिरी आँख पुर-नम है
चुप-चाप गुम-सुम खड़ा हूँ यहाँ पर

मिरे आँसुओं में
तसावीर हैं

माज़ी-ओ-हाल की
वक़्त की मंज़िलों की

मिरे ज़ेहन में दास्ताँ है
ज़माने के बनने बिगड़ने की

तामीर-ओ-तख़रीब की धड़कनों की
मिरे कान में गूँजती हैं वो नर्म और शीरीं सदाएँ

जिन्हें आग ने इस मकान के खंडर में फ़ना कर दिया है
मोहब्बत की तक़्दीस

मा'सूम शम्ओं' के अश्कों की गर्मी
धोएँ की तड़पती हुई धारियाँ

उन का पैग़ाम बन कर
फ़ज़ाओं में शायद भटकने लगी हैं

मिरी आँख पुर-नम है फिर भी मैं ख़ुश हूँ
मिरे पास ख़्वाबों की मा'सूम ठंडक

इरादों के रौशन सितारों की नर्मी
तख़य्युल की बहती हुई नग़्मगी है

मैं यादों के मलबे पे तख़्लीक़ का फूल ले कर खड़ा हूँ