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ख़लिश | शाही शायरी
KHalish

नज़्म

ख़लिश

खुर्शीद अकबर

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ज़ाफ़रानी शबीह थी उस की
मैं भी था सब्ज़ा-ए-बहार का रंग

यूँ हुई तेज़ क़ुर्बतों की धूप
रूप बहरूप ए'तिबार का रंग

बीच में आ गई ख़िज़ाँ ऐसी
बर्ग-ए-जज़्बात हो गए पीले

पड़ गई इश्क़ पर अजब उफ़्ताद
फिर नया मौसम-ए-सियासत था

खिंच गई फिर फ़सील-ए-तफ़रीक़ात
दूर का ढोल जश्न-ए-तक़रीबात

क़र्ज़ की तरह हुस्न की ख़ैरात
रह गए हाथ कासा-ए-शुबहात

एक नक़्शा है बे-पनाही का
और इस पर इनायतों की पनाह

इश्क़ था पेशा-ए-जुनूँ पहले
तेज़ था तेशा-ए-फ़ुसूँ पहले

अब तो ये माँगता है ख़ूँ पहले
बदले बदले हैं वक़्त और हालात

हुक्मराँ हर तरफ़ हुए सदमात
शग़्ल-ए-दौराँ है सिर्फ़ शह और मात

ढूँढता फिर रहा हूँ राह-ए-नजात
ख़्वाब पर यूँ ज़वाल आया है

क़ुर्बतों पर सवाल आया है
क्या हुआ हम भी चल न पाए साथ

इक ख़लिश रह गई मगर जानाँ