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ख़दशा | शाही शायरी
KHadsha

नज़्म

ख़दशा

अरशद कमाल

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गुफाओं जंगलों से दूर
हम तहज़ीब की धुन पर

तमद्दुन की रिदा ओढ़े
सफ़र करते रहे हैं एक मुद्दत से

मगर ये इक हक़ीक़त है
कि इस लम्बे सफ़र की एक साअत भी

हमारे हक़ में कुछ अच्छी नहीं निकली
दरीदा हो चुकी इस दरमियाँ चादर तमद्दुन की

गिराँ-बार-ए-समाअत हो गई तहज़ीब की हर धुन
अब ऐसे में

ज़मीं की शक्ल को मद्द-ए-नज़र रखिए
तो ये महसूस होता है

कि यूँ जारी रहा अपना सफ़र
तो एक दिन

फिर से न जा पहुँचें
गुफाओं के अंधेरों में