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ख़ाना-ब-दोशों का गीत | शाही शायरी
KHana-ba-doshon ka git

नज़्म

ख़ाना-ब-दोशों का गीत

मोहम्मद अनवर ख़ालिद

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अब किस लिए जहान-ए-ख़राबी में घूमना
वो सो गई तो उस ने न देखा कि उस के बा'द

कितनी बड़ी क़तार खुले ज़ावियों की थी
वक़्त आ गया था वस्ल-ओ-मुकाफ़ात वस्ल का

ऊँची ज़मीं पे रेल की खिड़की के साथ साथ
ग़ारों में बिस्तरों में ज़मीं पर रज़ाई में

अब किस लिए जहान-ए-ख़राबी में लौटना
सो आशियाँ को मिस्ल-ए-कबूतर उड़ाइए

और दिन गुज़र चले तो ये बाज़ू समेट कर
अंगुश्तरी को आइने पर मार सोइए

वक़्त आ गया है वस्ल-ओ-मुकाफ़ात-ए-स्ल का